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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


मानसरोवर
अलग्योझा मुंशी प्रेम चंद

खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। चर-चर शोर हुआ मानो गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है। लछमन ने दूसरी गाड़ी में बैठकर कहा-दादा, खींचो।
रग्घू ने झुनियाँ को भी गाड़ी में बिठा दिया और गाड़ी खींचता हुआ दौड़ा। तीनों लड़के तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चकित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि य वही रग्घू है या कोई और।
थोड़ी देर के बाद दोनों गाड़ियाँ लौटीं: लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब, मानों हवाई जहाज पर बैठ आये हों।
खुन्नू ने कहा-काकी सब पेड़ दौड़ रहे थे।
लछमन-और बछियाँ कैसी भागीं, सबकी सब दौड़ीं!
केदार-काकी, रग्घू दादा दोनों गाड़ियाँ एक साथ खींच ले जाते हैं।
झुनियाँ सबसे छोटी थी। उसकी व्यंजना-शक्ति उछल-कूद और नेत्रों तक परिमित थी-तालियाँ बजा-बजाकर नाच रही थी।
खुन्नू-अब हमारे घर गाय भी आ जाएगी काकी! रग्घू दादा ने गिरधारी से कहा है कि हमें एक गाय ला दो। गिरधारी बोला, कल लाऊँगा।
केदार-तीन सेर दूध देती है काकी! खूब दूध पीएंगे।
इतने में रग्घू भी अंदर आ गया। पन्ना ने अवहेलना की दृष्टि से देखकर पूछा-क्यों रग्घू तुमने गिरधारी से कोई गाय माँगी है?
रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा-हाँ, माँगी तो है, कल लाएगा।
पन्ना-रुपये किसके घर से आऍंगे, यह भी सोचा है?
रग्घू-सब सोच लिया है काकी! मेरी यह मुहर नहीं है। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पाँच रुपये बछिया के मुजा दे दूँगा! बस, गाय अपनी हो जाएगी।
पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अविश्वासी मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सका। बोली-मुहर को क्यों बेचे देते हो? गाय की अभी कौन जल्दी है? हाथ में पैसे हो जाएँ, तो ले लेना। सूना-सूना गला अच्छा न लगेगा। इतने दिनों गाय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिए?
रग्घू दार्शनिक भाव से बोला-बच्चों के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी! इस उम्र में न खाया, तो फिर क्या खाऍंगे। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नही मालूम होता। लोग समझते होंगे कि बाप तो गया। इसे मुहर पहनने की सूझी है। भोला महतो गाय की चिंता ही में चल बसे। न रुपये आए और न गाय मिली। मजबूर थे। रग्घू ने यह समस्या कितनी सुगमता से हल कर दी। आज जीवन में पहली बार पन्ना को रग्घू पर विश्वास आया, बोली-जब गहना ही बेचना है, तो अपनी मुहर क्यों बेचोगे? मेरी हँसुली ले लेना।
रग्घू-नहीं काकी! वह तुम्हारे गले में बहुत अच्छी लगती है। मर्दो को क्या, मुहर पहनें या न पहनें।
पन्ना-चल, मैं बूढ़ी हुई। अब हँसुली पहनकर क्या करना है। तू अभी लड़का है, तेरा गला अच्छा न लगेगा?
रग्घू मुस्कराकर बोला—तुम अभी से कैसे बूढ़ी हो गई? गाँव में है कौन तुम्हारे बराबर?
रग्घू की सरल आलोचना ने पन्ना को लज्जित कर दिया। उसके रुखे-मुरछाए मुख पर प्रसन्नता की लाली दौड़ गई।

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